
– लोकसभा चुनाव के पहले इमरजेंसी मूवी रिलीज होती तो कांग्रेस को थोडा फायदा और हो जाता
बसंत चौहान, सिटी हेराल्ड, इटारसी
अभिनेत्री से भाजपा सांसद बनी कंगना रनौत ने इमरजेंसी मूवी बनाने के लिए संजीदगी से मेहनत की है। यह मूवी तमाम उन लोगों के लिए मुंह पर तमाचा है जो मूवी देखने के पहले ही उस पर अनर्गल प्रलाप करने लगते हैं। मूवी देखने के पहले मैं भी यही सोच रहा था, अभिनेत्री कंगना रनौत है और इंदिरा गांधी द्वारा देश पर लगाई गई इमरजेंसी पर मूवी बन रही है। प्रचारित भी यही हुआ, लेकिन मूवी देखने के बाद समझ आया है कि मूवी का नाम ही दरअसल, जानबूझकर गलत रख दिया गया। हो सकता है कि लोगों को मूवी के प्रति आकर्षित करने के लिए ऐसा किया गया हो, लेकिन यह मूवी पूर्व प्रधानमंत्री के राजनैतिक व पारिवारिक जीवन पर आधारित है।
बहुत ही संजीदा तरीके से कंगना रनौत ने इंदिरा जी के जीवन को इस मूवी में जिया है।
अब बात करते हैं मूवी की….
इस फिल्म में जैसा ही अंदेशा था कि बीती सरकारों पर लांछन लगेगा। पर ऐसा कुछ हुआ नहीं, एक तयशुदा एजेंडे पर फिल्म आगे बढ़ी नहीं। आश्चर्य ये है कि कंगना रनौत ने ऐसा कुछ भी इस फिल्म में नहीं किया है। लोकसभा चुनाव से पहले ये फिल्म रिलीज होती तो शर्तिया कांग्रेस को फायदा पहुंचाती। इंदिरा के बारे में जो कांग्रेसी विस्तार से न जानते हों, उन्हें ये फिल्म जरूर देखनी चाहिए और देश के हर जाग्रत नागरिक को ये फिल्म इसलिए देखनी चाहिए कि इंदिरा गांधी नाम की जो महिला इस देश में जन्मी, उसने कैसे दुनिया की दिग्गज ताकतों की नाक के नीचे दुनिया के नक्शे पर एक नए देश का खाका खींच दिया।
मूवी यह बताने की कोशिश करती है…
पब्लिक डोमेन में है कि रायबरेली से अपना चुनाव अवैध घोषित होने की वजह से ही इंदिरा गांधी ने आपातकाल लागू करने का फैसला किया। लेकिन, क्या आप जानते हैं कि 15 अगस्त 1975 को पड़ोसी मुल्क बांग्लादेश में ऐसा क्या हुआ जिसने इंदिरा गांधी को भीतर तक हिला दिया। मूवी के मुताबिक इंदिरा जी को डर था कि जो बंगलादेश में हुआ वह उनके साथ भारत में हो सकता है। क्या देश में आपातकाल यानी इमरजेंसी लगाने की वजह इंदिरा का चुनाव निरस्त होना ही थी या फिर इसके पीछे और भी कारक काम कर रहे थे? क्या इंदिरा के बेटे संजय ने उन्हें ऐसा करने के लिए उकसाया? और क्या इसी वजह से जनता पार्टी की सरकार गिरने के बाद जब इंदिरा गांधी फिर से प्रधानमंत्री बनीं तो संजय गांधी का अपनी मां से भी मिलना मुश्किल हो गया था? सवाल ऐसे तमाम हैं। हर सीन में हैं। 12 साल की इंदु के अपने दादा से बुआ को घर से निकालने की फरियाद से से लेकर अपनी आखिरी रैली में ‘खून का एक एक कतरा देश के काम आने तक’ की इंदिरा गांधी तक की ये कहानी है। कंगना रनौत ने एक अच्छी कहानी लिखी है। और, इसमें अभिनय करने के साथ साथ बतौर निर्देशक अच्छी फिल्म भी बनाई है।
मूवी में एक दृश्य ऐसा आता है जिसमें हाथी पर बैठकर इंदिरा गांधी का जंगल में बसे गांव पहुंच जाना जानबूझकर बनाया गया मीडिया इवेंट था, या ये एक स्वत: प्रेरित घटना थी? फ्रांस के राष्ट्रपति के साथ रात्रि भोज करते समय परोसे गए केक के टुकड़े को पैक करके ले जाने की बात कहने वाली इंदिरा की त्वरित बुद्धि को किसने नजरअंदाज किया। और, क्या हुआ जब खुद को ‘गुड़िया’ कहकर पुकारने वाले जे पी नारायण से इंदिरा मिलने जा पहुंची? उसके बाद बदली देश की राजनीति की फिल्म में अंतर्धारा ऐसी है कि देश की सियासत की जरा सी भी समझ रखने वालों के रोएं ये फिल्म देखते समय कई बार खड़े हो सकते हैं।
मूवी इमरजेंसी के दौरान हुए अत्याचारों की बात तो करती है लेकिन ये हिस्सा फिल्म में बस कुछ मिनट का ही है। फिल्म का नाम ‘इमरजेंसी’ की बजाय अगर ‘इंदिरा’ होता तो शायद फिल्म की इतनी चर्चा नहीं होती। ‘इमरजेंसी’ निष्पक्षता के निकट तक पहुंची सबसे प्रामाणिक फिल्म मानी जा सकती है। न तो ये इंदिरा का प्रशस्ति गान है और न ही उनकी आंख मूंदकर की गई आलोचना। और, इसी एक पैमाने पर खरी उतरकर ये फिल्म न सिर्फ दर्शनीय बन जाती है, बल्कि प्रशंसनीय भी है।